“गाँव का प्रेम, शहर की धड़कन”
(एक गाँव के सीधे-सादे लड़के और शहर की तेज़-तर्रार लड़की की दिल को छू लेने वाली प्रेम कहानी)
भूमिका:
राजस्थान के एक छोटे से गाँव “धनेरी” में रहता था एक सीधा-सादा, मेहनती और दिल का बहुत अच्छा लड़का — अविनाश।
किसान परिवार से था, लेकिन पढ़ा-लिखा और समझदार।
वहीं, मुंबई की रौनक़ भरी ज़िंदगी में पल-बढ़ी थी अनुप्रिया — एक अमीर बिज़नेसमैन की इकलौती बेटी।
किस्मत ने दोनों की राहें कुछ इस तरह मोड़ी कि दो अलग दुनिया के लोग, एक ही कहानी का हिस्सा बन गए।
पहली मुलाक़ात
राजस्थान की तपती दोपहर थी। धूप के तेज़ थपेड़ों के बीच रेत की परतें आसमान तक उड़ती दिख रही थीं।
धनेरी गाँव में चारों तरफ़ सन्नाटा सा पसरा था, बस कहीं-कहीं बैलों की घंटियों की टनटनाहट और बच्चों की खिलखिलाहट सुनाई देती थी।
उसी गाँव की कच्ची पगडंडियों पर एक सफेद SUV धीरे-धीरे रुकती है। उसमें से उतरी एक तेज़-तर्रार लड़की — अनुप्रिया।
लंबे खुले बाल, नीली जींस और सफेद कुर्ती में वो किसी परियों जैसी लग रही थी। हाथ में कैमरा और एक मोटी सी डायरी।
चेहरे पर हल्का-सा संकोच, लेकिन आँखों में जिज्ञासा की चमक साफ़ नज़र आ रही थी।
उसे यहाँ भेजा था उसके कॉलेज के प्रोजेक्ट ने — “गाँवों की बदलती तस्वीरें” पर रिसर्च करना था।
लेकिन उसके लिए ये बस एक पढ़ाई का हिस्सा नहीं था, ये एक अनुभव था, जिसे वो महसूस करना चाहती थी।
वो जब SUV से उतरी, तो गाँव की सोंधी मिट्टी की खुशबू ने उसे रोक लिया। उसने गहरी सांस ली —
“वाह… ये खुशबू तो किसी इत्र से बेहतर है।”
पापा के पुराने नौकर भोलाराम काका, जो अब वहीं स्कूल में चपरासी थे, उसे रिसीव करने आए थे। उन्होंने पूरे अपनापन से उसका स्वागत किया।
“आइए बिटिया, ये हमारा छोटा सा गाँव है… लेकिन आपका दिल यहीं छूट जाएगा, ये पक्का है।”
अनुप्रिया मुस्कुरा दी।
वहीं दूसरी तरफ़, दूर खेतों में अपने बैलों को नहलाकर, एक लंबा-सा छाता कंधे पर टांगे, एक नौजवान लौट रहा था — अविनाश।
हल्का गेहुआ रंग, आँखों में गहराई, और चेहरे पर मेहनत की चमक। कंधे पर गमछा था, और हाथ में बैलों की रस्सी।
खेत की पगडंडी से गुजरते हुए, जैसे ही उसने गाँव की ओर नज़र घुमाई, उसकी नज़र एक अजनबी लड़की पर पड़ी।
वो वहीं रुक गया।
वो लड़की SUV के पास खड़ी थी, कैमरे से कुछ तस्वीरें ले रही थी।
हवा में उसके बाल उड़ रहे थे, और वो बार-बार अपने कान के पीछे उन्हें संभालने की कोशिश कर रही थी।
कभी मिट्टी को हाथ से छूकर महसूस करती, तो कभी कोई तस्वीर लेकर डायरी में कुछ नोट करती।
अविनाश ने अपनी आंखें मिचमिचाईं।
“ये कौन है? हमारे गाँव में ऐसे कपड़ों में कौन आ गया?”
लेकिन अगले ही पल, उसकी आंखों में कुछ बदल गया।
“पहली बार लगा कि कोई सपना चलती फिरती हकीकत बनकर सामने आ गया हो।”
उसने कभी शहर की लड़की को इतने करीब से नहीं देखा था। लेकिन उसकी खूबसूरती से ज़्यादा उसे उसकी मासूमियत ने बाँध लिया।
इधर अनुप्रिया ने भी हल्की नज़र डाली उस लड़के पर। मिट्टी से सने कपड़े, चेहरा धूप से तप रहा, लेकिन मुस्कुराहट ऐसी जैसे कोई गीत गुनगुना रहा हो।
भोलाराम काका ने धीरे से कहा,
“बिटिया, ये अविनाश है… हमारे गाँव का होशियार लड़का। पढ़ाई में भी तेज़, खेती में भी माहिर। अगर आपको गाँव दिखाना हो, तो इससे अच्छा गाइड कोई नहीं मिलेगा।”
अनुप्रिया ने मुस्कुरा कर हाथ बढ़ाया,
“Hi, I’m Anupriya. From Mumbai.”
अविनाश थोड़ा झिझका, लेकिन फिर गमछे से हाथ पोंछकर बोला,
“राम-राम। हम हैं अविनाश। गाँव के आदमी हाथ मिलाते नहीं… सीधे दिल से मिलते हैं।”
अनुप्रिया हँस दी। उसे ये सादगी और बेबाकी एकदम अनोखी लगी।
उस दिन शाम को अनुप्रिया गाँव की गलियों में घूम रही थी। बच्चे उसके पीछे-पीछे भाग रहे थे। कोई उसे “मैडम” कह रहा था, कोई “दीदी”। तभी एक कच्चे घर के पास उसे आवाज़ आई —
“चाय पीजिए न, शहर वालों को भी हमारी मिट्टी की चाय पसंद आएगी।”
वो मुड़ी तो देखा — अविनाश एक पुराने से बेंच पर बैठा, उसे देखकर मुस्कुरा रहा था।
वो रुकी, कुछ सेकंड सोचा… फिर पास जाकर बोली —
“बस एक कप, लेकिन फीकी।”
अविनाश ने हँसते हुए कहा,
“हमारी चाय फीकी नहीं होती, लेकिन मीठी यादें ज़रूर छोड़ती है।”
उस शाम की चाय, उनकी पहली लंबी बातचीत का ज़रिया बनी। अनुप्रिया ने गाँव के रहन-सहन, महिलाओं की स्थिति, बच्चों की पढ़ाई के बारे में पूछा — और अविनाश ने सच्चे मन से सब कुछ बताया।
धीरे-धीरे बातों का सिलसिला बढ़ता गया… शाम की रौशनी में उनके साये पास आते गए।
कहते हैं, पहली मुलाक़ात कभी पहली जैसी नहीं रहती। वो कुछ छोड़ जाती है — एक असर, एक खिंचाव, एक अधूरी मुस्कान।
और उस शाम, उसी मिट्टी के घर के पास, पहली बार अनुप्रिया और अविनाश दोनों ने किसी अनजानी सी भावना को महसूस किया था
नज़दीकियाँ
सुबह की पहली किरण जैसे ही धनेरी की लाल मिट्टी पर पड़ी, गाँव की रौनक धीरे-धीरे लौटने लगी थी।
मुर्गे बांग दे रहे थे, औरतें पानी भरने के लिए घड़े उठाए चल रही थीं, और दूर से बैलों की हल्की सी आवाज़ सुनाई दे रही थी।
उसी सुबह, अनुप्रिया स्कूल के बाहर चारपाई पर बैठकर डायरी में कुछ नोट्स बना रही थी। उसका चेहरा धूप में और भी चमक रहा था, जैसे किसी तस्वीर का सुनहरा कोना।
उसके मन में बहुत से सवाल थे — गाँव की सोच, लोगों की ज़िंदगी, बच्चों की पढ़ाई, लड़कियों की स्थिति… लेकिन इन सवालों के जवाब उसे चाहिए थे किसी अपने से, किसी ऐसे से जो इस मिट्टी से जुड़ा हो।
उसी वक़्त अविनाश आया, एक साइकिल पर। पीछे लोहे की टोकरी में दो मिट्टी के कुल्हड़ रखे थे — एक में दूध, और एक में चाय।
“राम राम। आज का नाश्ता, थोड़ा देसी स्टाइल में,” अविनाश ने मुस्कुराते हुए कहा।
अनुप्रिया ने कुल्हड़ लिया, और पहले चाय की खुशबू सूंघी —
“इसमें एक अजीब-सी ताज़गी है… जैसे यादों की गंध हो।”
अविनाश हँस पड़ा, “यादें ही तो हैं… गाँव की मिट्टी में जो उबलती है।”
गाँव के बुज़ुर्गों ने कहा कि अविनाश ही अनुप्रिया को गाँव की सारी जगहें दिखाए। “भोलाराम की बिटिया है, अच्छे से ख्याल रखना,” किसी ने कंधे पर हाथ रखकर कहा।
सूरज धीरे-धीरे ऊपर चढ़ रहा था और दोनों निकल पड़े — एक नई दोस्ती की शुरुआत की ओर।
पहला पड़ाव था खेत।
चारों ओर सरसों के फूल खिले थे। हवा में सौंधी महक थी, और बीच-बीच में भौंरों की आवाज़ें।
अनुप्रिया ने कई तस्वीरें लीं। एक तस्वीर में अविनाश बैलों के साथ खड़ा था, दूसरी में वो खुद हल चला रहा था।
“क्या तुम हमेशा खेत में ही रहते हो?”
“नहीं… मैं सपनों में भी रहता हूँ,” अविनाश ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया।
अनुप्रिया ने उसे चौंक कर देखा —
“सपनों में क्या?”
“सपने… जहाँ शहर की लड़की सरसों के खेत में खो जाए,” उसने मज़ाक में कहा, लेकिन दोनों की नज़रें कुछ देर के लिए ठहर गईं।
दूसरा पड़ाव था तालाब।
नीले आसमान का प्रतिबिंब उस शांत पानी में ऐसा लग रहा था जैसे कोई दूसरी दुनिया बस रही हो। अनुप्रिया ने झुककर पानी को छुआ।
“इतना साफ़ पानी शहर में नहीं मिलता।”
“क्योंकि यहाँ लोग सिर्फ़ खुद को नहीं, एक-दूसरे की आँखों को भी साफ़ रखते हैं।”
फिर दोनों वहीं किनारे बैठ गए। हवा में खामोशी थी, लेकिन दिलों में हलचल थी। अचानक अनुप्रिया ने पूछा:
“तुम कभी शहर गए हो?”
“एक बार जोधपुर गया था, एक रिश्तेदार की शादी में… लेकिन वहाँ की भीड़, वो शोर… मुझे घबरा देता है। वहाँ लोग आँखों से नहीं, जेब से पहचानते हैं।”
अनुप्रिया ने गहराई से उसकी बात सुनी — ये लड़का अलग था, कुछ ऐसा जो अब शहरों में कम मिलता है।
तीसरा पड़ाव था मंदिर।
एक पुराना शिव मंदिर, जहाँ पीपल के पेड़ के नीचे घंटियाँ बंधी थीं। अविनाश ने जूते उतारे और कहा,
“यहाँ मन शांत होता है। कभी-कभी सवालों के जवाब भी यहीं मिलते हैं।”
अनुप्रिया ने भी चुपचाप प्रार्थना की। उसकी आँखें बंद थीं, लेकिन मन में हलचल। क्या वो इस गाँव में, इस मिट्टी में, किसी अनकहे रिश्ते को महसूस कर रही थी?
आख़िरी पड़ाव था गाँव का पुराना स्कूल।
जर्जर दीवारें, टूटी खिड़कियाँ, लेकिन बच्चों की हँसी आज भी वहाँ गूंज रही थी। अविनाश ने बताया कि वो कभी यहाँ पढ़ा करता था।
“वो देखो, मेरी सीट… तीसरी कतार, खिड़की के पास। वहीं से बाहर खेत दिखते थे, और सपने भी।”
अनुप्रिया ने गौर से देखा —
“सपने सिर्फ़ खिड़की से नहीं, दिल से भी देखे जाते हैं।”
“ये खेत सिर्फ़ अनाज नहीं उगाते, ये यादें बोते हैं।”
अविनाश की इस बात पर अनुप्रिया पहली बार मुस्कुराई थी… दिल से।
वापसी के रास्ते पर दोनों चुप थे। सूरज अब ढल रहा था, और आसमान के रंग बदल रहे थे।
हवाओं में अब सर्दी घुलने लगी थी, लेकिन दिलों में एक अलग तरह की गर्मी आ रही थी — लगाव की, अपनापन की, और शायद किसी नए रिश्ते की शुरुआत की।
चलते-चलते अनुप्रिया ने पूछा,
“तुम्हारे गाँव में लोग इतने खुले दिल के क्यों होते हैं?”
अविनाश कुछ देर सोचता रहा, फिर बोला —
“क्योंकि यहाँ दिलों को बंद करके ताले नहीं लगाए जाते… हर दरवाज़ा, हर छत, हर बात में थोड़ा-सा प्रेम रहता है।”
अनुप्रिया ने कोई जवाब नहीं दिया। वो बस उसकी तरफ़ देखती रही, जैसे शब्दों से ज़्यादा उसे अविनाश की आँखों में जवाब मिल गया हो।
शाम को दोनों फिर उसी बेंच पर बैठे थे, जहाँ पहले दिन चाय पी थी। लेकिन इस बार ख़ामोशी में भी एक मिठास थी।
अनुप्रिया ने अपनी डायरी खोली और एक पंक्ति लिखी —
“कभी-कभी, जवाब तलाशने नहीं पड़ते… वो खुद हमारे पास चलकर आ जाते हैं — खेतों की मिट्टी, तालाब की ख़ामोशी, और किसी की मुस्कान में छुपे हुए।”
अविनाश ने डायरी की ओर देखा, फिर उसकी ओर —
“क्या मैं उसमें जगह पा सकता हूँ?”
अनुप्रिया ने डायरी बंद की, मुस्कुराई और हल्के से कहा —
“तुम पहले ही मिल चुके हो, पन्नों में नहीं… दिल में।”
पहली बारिश, पहली भावना
गर्मी की दोपहर थी, लेकिन आसमान में अजीब-सी खामोशी थी।
सूरज बादलों से आँखमिचौली खेल रहा था, और हवा में घुली मिट्टी की महक कुछ अलग कह रही थी — जैसे कोई बदलाव आने वाला हो।
अविनाश और अनुप्रिया उस दिन गाँव के सबसे बड़े खेत की तरफ गए थे। अनुप्रिया अपनी नोटबुक में कुछ स्थानीय फसलों पर नोट्स बना रही थी, और अविनाश उसे समझा रहा था —
“ये जो मोटा अनाज है ना, इसे ज्वार कहते हैं। ये पेट से ज़्यादा दिल को भरता है…”
वो बात कर ही रहे थे कि अचानक तेज़ हवा चली। खेत में लगे पेड़ झूमने लगे और फिर… एक तेज़ गड़गड़ाहट के साथ बारिश की मोटी बूंदें गिरने लगीं। बिना किसी चेतावनी के।
“अरे!” अनुप्रिया चौंकी।
“भागो, पेड़ के नीचे!” अविनाश ने उसका हाथ पकड़ लिया और दोनों दौड़ते हुए खेत के किनारे एक पुराने नीम के पेड़ के नीचे पहुंचे।
बारिश अब और तेज़ हो चुकी थी। खेतों में पानी उफनने लगा, और हर बूँद मिट्टी से टकरा कर ख़ुशबू बिखेर रही थी।
नीम का पेड़ बहुत बड़ा नहीं था — बूंदें फिर भी दोनों को भिगो रही थीं। अनुप्रिया के बाल भीगकर उसके गालों से चिपक गए थे, और उसकी आँखें… वो कुछ कह रही थीं।
अविनाश की शर्ट भीगकर उसके शरीर से चिपक गई थी, और वो थोड़ी झिझक के साथ दूर खड़ा था।
कुछ पल दोनों चुप रहे। सिर्फ़ बारिश की आवाज़, और दिलों की धड़कनें।
फिर अनुप्रिया ने धीरे से कहा,
“भीग गए हैं हम… क्या अब भी कुछ अधूरा है?”
ये कोई सवाल नहीं था, ये एक एहसास था।
अविनाश ने उसकी तरफ़ देखा — उसकी आँखों में झलकता वो कोमल विश्वास, वो गर्मी जो सिर्फ़ प्यार दे सकता है।
“हाँ,” वह धीरे से बोला, “कुछ तो है… जो अब अधूरा नहीं रहा।”
अनुप्रिया की साँसें थोड़ी तेज़ थीं। वो अपने भीगे कपड़ों को लेकर असहज नहीं थी — उसके चेहरे पर शरारती सुकून था।
एक बूँद उसके माथे से गिरकर उसकी नाक पर अटकी, और अविनाश की नज़र वहीं अटक गई।
“हटा दूँ?” उसने पूछे बिना ही उँगली से वो बूँद धीरे से हटा दी।
उन दोनों के बीच अब सिर्फ़ कुछ इंच का फ़ासला था। लेकिन दिलों के बीच की दूरी जैसे उस एक बारिश में घुल चुकी थी।
अनुप्रिया ने उसकी तरफ़ देखा, और अविनाश ने पहली बार उसकी आँखों में वो साफ़-साफ़ देखा — कोई डर नहीं, कोई झिझक नहीं… बस अपनापन।
बारिश अब धीमी होने लगी थी, लेकिन उनके मन के बादल अभी तक बरस रहे थे। हवा ठंडी हो चुकी थी, और उनके कपड़े भीगकर शरीर से चिपक चुके थे।
अनुप्रिया कांप रही थी — शायद ठंड से, शायद एहसासों की गर्मी से।
अविनाश ने धीरे से कहा, “यहाँ से पास ही मेरा छोटा-सा घर है। चलो… सूखे कपड़े दे दूँ। मेरी बहन की सलवार-कुर्ती रखी है। माँ घर पर नहीं है, पर डरने की ज़रूरत नहीं।”
अनुप्रिया ने कोई विरोध नहीं किया। वो चुपचाप उसकी बगल में चल दी। अब उनके बीच कोई शब्द नहीं था, सिर्फ़ ख़ामोशी की भाषा।
अविनाश का घर मिट्टी और ईंटों से बना एक छोटा सा दो कमरों वाला घर था। अंदर जाते ही अनुप्रिया को वो सुकून महसूस हुआ जो किसी पुराने दोस्त के घर मिलने पर होता है।
अविनाश ने जल्दी से अलमारी से एक सूखा जोड़ा निकाला और कहा, “ये लो, बदल लो। मैं बाहर खड़ा हूँ।”
अनुप्रिया ने कपड़े लिए और अन्दर चली गई। बाहर अविनाश खड़ा था — हाथ में तौलिया, दिल में तूफ़ान।
उसकी सोच में अब वो मासूम दोस्ती नहीं थी, अब उसमें कुछ और शामिल हो गया था — कुछ गहरा, कुछ सच्चा।
थोड़ी देर बाद अनुप्रिया बाहर निकली। अब वो उस देसी सलवार-कुर्ती में थी। बाल खुले, आँखें नर्म, होंठों पर हल्की मुस्कान।
अविनाश उसे देखता रह गया।
“तुम… जैसे इस घर की ही हो…”
अनुप्रिया कुछ नहीं बोली, बस एक लंबी नज़र उसके चेहरे पर डाली।
शाम को बारिश थम गई थी, पर उनके दिलों में वो बारिश अब भी टपक रही थी। दोनों फिर वहीं बरामदे में बैठ गए।
अविनाश ने कहा,
“इस बारिश ने बहुत कुछ कह दिया… जो हम शब्दों में नहीं कह सके।”
अनुप्रिया ने उसकी ओर देखा, फिर धीरे से उसकी हथेली अपने हाथ में ले ली —
“कभी-कभी, सबसे साफ़ बातें सिर्फ़ भीगकर ही समझ आती हैं…”
रात के तारों में ख़ामोश इज़हार
गाँव की वो शाम कुछ अलग थी। आसमान में बादल छँट चुके थे, और हवाओं में हल्की ठंडक आ गई थी।
हर तरफ़ शांति थी — बस कभी-कभी किसी कुत्ते के भौंकने या पत्तों की सरसराहट की आवाज़ आ जाती थी।
अचानक गाँव की बिजली चली गई। चारों तरफ अंधेरा छा गया।
अनुप्रिया किताब पढ़ रही थी। पर जैसे ही लाइट गई, सब ठहर गया।
वो कुछ पल खामोश रही, फिर खिड़की से बाहर देखा — पूरा गाँव एक काले कंबल में सिमट चुका था, पर उसी अंधेरे में एक रौशनी थी — आकाश में जगमगाते तारे।
उसका मन छत की ओर खिंच गया।
छत पर वो मौन
छत पर पहुंचते ही ठंडी हवा ने उसका स्वागत किया।
लेकिन वहाँ सिर्फ़ हवा नहीं थी — अविनाश पहले से ही कोने में बैठा था, अपने हाथ पीछे टिकाए, और सिर उठाकर आसमान की ओर देखता हुआ।
वो धीमे क़दमों से जाकर पास बैठ गई।
कुछ मिनट तक दोनों कुछ नहीं बोले।
केवल तारे, और उनके बीच की ख़ामोशी।
“शहर में तो कभी इतने तारे नहीं दिखे…”
अनुप्रिया की आवाज़ में एक अधूरी-सी मुस्कान थी।
“क्योंकि शहर की रौशनी में दिल की रौशनी दब जाती है।”
अविनाश की ये बात जैसे किसी किताब का सबसे खूबसूरत पन्ना थी।
अनुप्रिया ने उसकी ओर देखा। वो अब भी आसमान की ओर देख रहा था, लेकिन उसकी बातों में जो गहराई थी — वो किसी नज़्म जैसी लग रही थी।
धीरे-धीरे अनुप्रिया उसकी तरफ़ थोड़ा और सरक आई। कुछ सेकंड रुककर उसने अपना सिर उसके कंधे पर रख दिया।
कोई आश्चर्य नहीं, कोई घबराहट नहीं — जैसे ये लम्हा होना ही था।
“अविनाश… अगर ये सब सपना है… तो मुझे नींद से मत जगाना।”
अविनाश की साँसे जैसे थम गईं।
वो कुछ कह नहीं पाया, बस उसके कंधे पर टिका उसका सिर, और उसके दिल की धड़कनें — सब कुछ एक नई दुनिया में ले जा रहे थे।
उसने अपनी उँगलियाँ धीरे से उसकी हथेली पर रखीं। अनुप्रिया ने उसकी ओर देखा — पहली बार नहीं, लेकिन इस बार नज़रों में इकरार था।
“कभी-कभी लगता है, मैं यहाँ सिर्फ़ रिसर्च करने नहीं आई… शायद कुछ पाने आई हूँ… कुछ खोने के लिए।”
अविनाश कुछ पल चुप रहा, फिर बोला,
“पाना और खोना तो दुनिया का काम है, पर जो दिल से जुड़ जाए… वो कभी नहीं छूटता।”
तारे अब भी टिमटिमा रहे थे। आसमान में दूर-दूर तक कोई बादल नहीं था। सब कुछ खुला — जैसे दो दिल अब किसी डर या शर्म के पर्दे के बिना खुल रहे थे।
अनुप्रिया ने उससे पूछा,
“तुम्हें डर नहीं लगता? अगर मैं वापस चली गई तो?”
अविनाश ने उसकी ओर देखा और मुस्कुरा दिया।
“डर तो है… पर उस डर में भी एक भरोसा है।
क्योंकि जो रिश्ता आँखों से नहीं, दिल से बना हो —
वो दूर रहकर भी पास रहता है।”
उस रात कुछ नहीं बदला — न गाँव, न आसमान… पर दो दिलों के बीच की दूरी मिट गई थी।
अब वो सिर्फ़ एक छत पर नहीं बैठे थे — वो एक-दूसरे के दिलों की छत पर बैठे थे। तारे गवाह थे, हवा हमराज़… और रात एक ख़ामोश इज़हार में डूबी थी।
सुबह की हवा में एक अजीब सी चुप्पी थी। पक्षियों की चहचहाहट भी जैसे धीमी थी। धनेरी गाँव की वो आखिरी सुबह, अनुप्रिया के दिल को कहीं गहराई तक खींच रही थी।
उसका सामान बंध चुका था, रिसर्च फाइलें बैग में रख दी गई थीं। लेकिन कुछ था जो अब भी अधूरा लग रहा था — जैसे गाँव की मिट्टी ने उसके पाँव थाम लिए हों।
अविनाश खड़ा था, चुपचाप।
उसकी नज़रें ज़मीन पर थीं, पर दिल… अनुप्रिया की हर धड़कन सुन रहा था।
स्टेशन की ओर सफ़र
गाड़ी पकड़ने के लिए जीप में दोनों साथ बैठे थे, लेकिन पहले जैसी बातचीत नहीं हो रही थी। दोनों ही चुप थे, पर उनकी खामोशी बहुत कुछ कह रही थी।
कभी-कभी आंखें मिलतीं, फिर झुक जातीं।
अनुप्रिया ने बाहर खेतों को देखा — वो हर जगह जो पिछले कुछ दिनों में उसकी ज़िंदगी का हिस्सा बन चुकी थी।
वो पेड़, वो मंदिर, तालाब… और सबसे ज़्यादा — अविनाश।
स्टेशन आ चुका था। ट्रेन आने वाली थी। प्लेटफार्म पर हलचल थी — कुलियों की आवाज़, चाय वाले की पुकार, और लाउडस्पीकर से आती घोषणाएं।
पर उस शोर के बीच, अनुप्रिया का दिल बिल्कुल शांत था — एक आख़िरी बात कहने के लिए।
गाड़ी आने ही वाली थी, तभी अनुप्रिया ने अचानक अविनाश का हाथ पकड़ लिया। उसके हाथ ठंडे थे, पर पकड़ मज़बूत।
अविनाश चौंका, पर कुछ नहीं बोला।
उसने उसकी आँखों में देखा और धीमे, लेकिन डूबे हुए शब्दों में कहा —
“मुझे शहर में बहुत कुछ मिलेगा… नाम, काम, रौशनी… लेकिन तुम्हारी सादगी, तुम्हारा सच्चा प्यार नहीं मिलेगा।”
“मैं तुमसे प्यार करती हूँ, अविनाश।”
वो शब्द हवा में नहीं, सीधे अविनाश के दिल के अंदर उतर गए।
अविनाश की आँखों में नमी आ गई। लेकिन वो मुस्कराया — एक सच्ची, शांत मुस्कान जो सिर्फ़ प्यार में होती है।
“मैं तो पहले ही तुम्हारे लिए जी रहा था, अब तुम्हारे इन लफ़्ज़ों के लिए मर भी सकता हूँ।”
ट्रेन की सीटी बज चुकी थी। प्लेटफार्म पर लोग चढ़ रहे थे, उतर रहे थे — लेकिन उस पल, उनके लिए सब थम गया था।
अनुप्रिया ने अपना बैग उठाया, लेकिन जाते-जाते एक आख़िरी बार मुड़ी।
अविनाश वहीं खड़ा था, अपनी जगह से हिला तक नहीं। लेकिन उसकी आँखें कह रही थीं — “मैं तुम्हारा इंतज़ार करूँगा।”
ट्रेन चली गई… पर उस दिन वहाँ से सिर्फ़ एक लड़की नहीं गई — वो दोनों एक रिश्ते के बीज को छोड़ गए थे, जो अब हर दिन यादों की मिट्टी में पनपने वाला था।
शहर लौटते ही अनुप्रिया ने वो फैसला किया, जिसे कई लोग सिर्फ़ सोचते हैं — सच बताने का।
डर था, लेकिन मोहब्बत उससे कहीं बड़ी थी।
रात के खाने पर उसने अपने पापा से कहा,
“पापा, मुझे आपसे कुछ जरूरी बात करनी है।”
उसके पापा, जिनकी पहचान शहर के सबसे बड़े बिल्डर, व्यापारी और समाजसेवी के रूप में थी, सिर उठाकर उसकी ओर देखने लगे।
उनके चेहरे पर वही कठोर अनुशासन था जो उन्होंने सालों से ओढ़ रखा था।
“गाँव में मेरी रिसर्च के दौरान… मेरी मुलाक़ात अविनाश से हुई थी।”
“वो एक किसान है… सादा, मेहनती, और सबसे जरूरी — ईमानदार।”
“मैं उससे प्यार करती हूँ, पापा।”
एक पल को जैसे सन्नाटा जम गया।
गुस्से की आँधी
उनके पापा ने टेबल पर ज़ोर से हाथ मारा।
“क्या कहा तुमने? एक गाँव का लड़का? हमारी बेटी?”
“तुम्हें अंदाज़ा भी है, हम कौन हैं और तुम किस दर्जे की बातें कर रही हो?”
अनुप्रिया की माँ डर के मारे कुछ बोल न सकीं।
पर अनुप्रिया अब चुप रहने वालों में नहीं थी।
“हाँ, मुझे पता है आप कौन हैं। और मुझे ये भी पता है मैं कौन बनना चाहती हूँ — किसी की ज़िम्मेदारी नहीं, किसी की ज़िंदगी।”
अगली सुबह बिना कुछ कहे, अनुप्रिया ने शहर छोड़ दिया।
गाँव लौटी तो सिर्फ़ दो बैग थे साथ — एक कपड़ों का, और दूसरा सपनों का।
अविनाश उसे देखकर हैरान रह गया।
“तुम… वापस?”
“हाँ, और हमेशा के लिए।” — उसने मुस्कुरा कर कहा।
वो अब सिर्फ़ अविनाश से प्यार करने नहीं आई थी — वो उस मिट्टी को अपनाने आई थी जो उसके प्यार की जड़ थी।
एक नई शुरुआत
गाँव के स्कूल में अनुप्रिया ने बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। अंग्रेज़ी, विज्ञान, और दुनिया की वो बातें जो गाँव के बच्चों तक कभी नहीं पहुँचती थीं।
अविनाश ने अपना खेत में एक छोटी सी जमीन पर उन्होंने एक मिट्टी से बनी लाइब्रेरी बनाई।
नाम रखा गया — “सपनों की बाड़ी”।
शुरू में गाँव वालों ने भी ताने मारे — “शहर की लड़की है, कब तक टिकेगी?”
“पढ़ाने आई है या प्यार लड़ाने?”
लेकिन वक्त के साथ, जब उन्होंने देखा कि अनुप्रिया हर रोज़ बच्चों को पढ़ाती है, बारिश में भी स्कूल जाती है, बीमार बच्चों के लिए डॉक्टर बुलाती है — लोगों के दिल बदलने लगे।
“शहर की नहीं लगती अब, हमारी ही बेटी लगती है।”
गाँव की बुज़ुर्ग महिलाएँ अब उसकी हथेली पर मेहंदी लगाना चाहती थीं।
कई महीने बीत गए। एक दिन अनुप्रिया के पिता अचानक गाँव आए। उन्होंने अपनी गाड़ी लाइब्रेरी के पास रोकी।
वो गाड़ी से उतरे, और अविनाश को खेत में बच्चों को पढ़ाते देख खड़े रह गए।
कोई दिखावा नहीं, कोई दिखावटी प्यार नहीं — बस सच्चा समर्पण।
शाम को जब वो अनुप्रिया से मिले, उनकी आँखों में कठोरता नहीं, थकावट थी।
“मैंने सोचा था, तू मेरा नाम रोशन करेगी, ऊँचाई तक जाएगी…
पर तू तो उस ऊँचाई पर गई है जहाँ मैं पहुँच ही नहीं सका।”
“जो लड़का मेरी बेटी को सिर्फ़ चाहता नहीं, समझता भी है… वो उसका हक़दार है।”
उस दिन अविनाश और अनुप्रिया दोनों की आँखों में आंसू थे — लेकिन वो आंसू हार के नहीं थे।
वो प्रेम की जीत के मोती थे।
गाँव के उस पुराने मंदिर में, जहाँ दीवारें अब भी मिट्टी की खुशबू से भरी थीं, आज कुछ अलग-सा उजास था।
मंदिर के सामने पीपल का पेड़ था — वही पेड़, जिसके नीचे पहले कभी अनुप्रिया और अविनाश ने बारिश से बचते हुए एक-दूसरे की आँखों में चुपचाप भावनाओं की बारिश झेली थी।
अब उसी पीपल के नीचे, उसी मिट्टी पर, दो दिलों की ज़िंदगियाँ एक होने जा रही थीं।
शादी की सादगी, आत्मा की भव्यता
ना शहनाई की ऊँची धुनें थीं, ना रौशनी से चमकते महंगे मंडप।
फिर भी वो जगह सबसे रौशन थी — क्योंकि वहाँ सच्चा प्यार था।
गाँव की औरतें अपने हाथों से सजावटी बंदनवार लाईं, और बच्चों ने फूलों से रास्ता बनाया।
अनुप्रिया ने गुलाबी रंग की साड़ी पहनी थी, माथे पर हल्दी का टीका और आँखों में काजल नहीं, खुशियों की चमक थी।
अविनाश ने खादी का साफा बाँधा, और अपनी उसी सादगी में आया — लेकिन आज वो सादगी राजा जैसी गरिमा ले आई थी।
सात फेरे, सात सपने
जब पंडित ने मंत्र पढ़ने शुरू किए, और अग्नि साक्षी बनी, दोनों एक-एक फेरा लेते गए।
हर फेरे पर उन्होंने एक सपना एक-दूसरे की आँखों में देखा:
पहला फेरा: साथ जीने का — चाहे खेत की धूप हो या दुनिया का तिरस्कार।
दूसरा फेरा: सपनों को साथ बुनने का — गाँव की गलियों से नई दुनिया बनाने तक।
तीसरा फेरा: सम्मान का — एक-दूसरे को कभी छोटा न समझने का।
चौथा फेरा: विश्वास का — बिना कहे भी सब समझ जाने का।
पाँचवाँ फेरा: माफ़ी का — गलती हो, तो साथ चलने का साहस रखने का।
छठा फेरा: अपनों के लिए बनने का — गाँव, बच्चे, परिवार… सबके लिए एक मिसाल बनने का।
सातवाँ फेरा: प्यार का — जो उम्र, शहर, जाति, भाषा से ऊपर उठकर रूहों को जोड़ दे।
शादी के बाद, दोनों उसी लाइब्रेरी में लौटे — “सपनों की बाड़ी” — और वहाँ के बच्चों ने उनके लिए हाथ से बनाए कार्ड्स दिए।
गाँववालों ने मिलकर छोटा सा भोज रखा, जिसमें बाजरे की रोटी, गुड़ और छाछ परोसी गई — लेकिन उस सादे खाने में मोहब्बत का स्वाद था।
शाम को, जब सूरज ढल रहा था, अनुप्रिया ने अविनाश का हाथ पकड़कर कहा:
“अब मैं तुझसे सिर्फ़ प्यार नहीं करती,
मैं तुझसे जीती हूँ।”
अविनाश ने मुस्कुराकर उसकी आँखों में देखा और बोला:
“शहर की लड़की और गाँव का लड़का…
दो दिल, एक धड़कन…
यही है हमारी कहानी —
‘गाँव का प्रेम, शहर की धड़कन’।”
समाप्त
कुछ कहानियाँ किताबों में नहीं, दिलों में लिखी जाती हैं।
और ये वही कहानी थी — सच्चे प्यार की, जो ना अमीरी देखता है, ना मजबूरी… बस दिल की ज़मीन पर उगता है।
